IAS में लैटरल एंट्री से आरक्षण खत्म! सरकार के फैसले पर मचा बवाल – जानिए पक्ष-विपक्ष की पूरी कहानी!
लेटरल एंट्री का मुद्दा भारतीय प्रशासनिक ढांचे में हाल के वर्षों में एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय बन गया है। इस प्रक्रिया के तहत, विशेषज्ञों को सीधे वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया जाता है, जो सामान्यतः UPSC परीक्षाओं के माध्यम से चयनित अधिकारियों के लिए आरक्षित होते हैं।
मुख्य सवाल: क्या लेटरल एंट्री से आरक्षण प्रणाली कमजोर हो रही है?
सरकार द्वारा लेटरल एंट्री के तहत 45 पदों पर भर्ती की घोषणा की गई है, जिसमें सचिव, संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव स्तर के पद शामिल हैं। इस भर्ती प्रक्रिया पर विपक्षी दलों का आरोप है कि यह आरक्षण प्रणाली को कमजोर करने की दिशा में एक कदम है।
आरक्षण प्रणाली के तहत, UPSC की परीक्षा में चयनित उम्मीदवारों को उनके वर्ग के अनुसार आरक्षण दिया जाता है। लेकिन लेटरल एंट्री के माध्यम से हो रही भर्ती में आरक्षण लागू नहीं हो रहा है, क्योंकि इसमें विभिन्न विभागों के लिए पद अलग-अलग घोषित किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, अगर 45 पदों को अलग-अलग मंत्रालयों के तहत घोषित किया जाए और प्रत्येक मंत्रालय में पदों की संख्या 13 से कम हो, तो आरक्षण लागू नहीं होता। यह तकनीकी मुद्दा विपक्ष के आरोपों का आधार है।
लेटरल एंट्री के फायदे और नुकसान:
- फायदे:
- विशेषज्ञता: लेटरल एंट्री के जरिए सरकार उन विशेषज्ञों को प्रशासनिक प्रणाली में शामिल कर सकती है जिनके पास व्यापक अनुभव और ज्ञान है।
- तेजी से निर्णय: विशेषज्ञों की भर्ती से निर्णय लेने की प्रक्रिया में तेजी आ सकती है, खासकर जब तकनीकी या विशेष ज्ञान की आवश्यकता हो।
- नुकसान:
- आरक्षण का अभाव: लेटरल एंट्री में आरक्षण लागू न होने से समाज के वंचित वर्गों के लिए असमानता बढ़ सकती है।
- पारदर्शिता का अभाव: लेटरल एंट्री की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं।
इतिहास और वर्तमान स्थिति:
लेटरल एंट्री की अवधारणा पहली बार 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में लागू की गई थी। तब से अब तक, विभिन्न पदों पर 63 लोगों की भर्ती की जा चुकी है। यह प्रक्रिया विवादित रही है, विशेषकर इस बात को लेकर कि क्या यह पारदर्शी और निष्पक्ष है, और क्या यह आरक्षण प्रणाली को कमजोर कर रही है।
वर्तमान विवाद:
हाल ही में, विपक्षी नेताओं जैसे राहुल गांधी और चिराग पासवान ने इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना की है। उनका कहना है कि इस प्रक्रिया के जरिए सरकार आरक्षण को समाप्त करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि लेटरल एंट्री के तहत किए जा रहे भर्तियों में आरक्षण का पालन नहीं किया जा रहा है।
पक्ष
- विशेषज्ञता का लाभ: लेटरल एंट्री से सरकार को ऐसे विशेषज्ञ मिलते हैं जो अपने क्षेत्र में विशेष ज्ञान और अनुभव रखते हैं। ये लोग सरकार में नई सोच और दृष्टिकोण लाते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्यक्षमता में सुधार हो सकता है।
- समय की बचत: UPSC के माध्यम से चयनित अधिकारियों को ट्रेनिंग और अनुभव हासिल करने में समय लगता है, जबकि लेटरल एंट्री के माध्यम से आने वाले व्यक्ति पहले से ही अनुभवी होते हैं और उन्हें तुरंत जिम्मेदारी दी जा सकती है।
विपक्ष
- आरक्षण का उल्लंघन: लेटरल एंट्री में आरक्षण लागू नहीं होता, जिससे SC, ST, OBC और अन्य पिछड़े वर्गों के उम्मीदवारों को नुकसान होता है। जैसा कि आपने बताया, जब पदों की संख्या कम होती है, तो आरक्षण नियम लागू नहीं होते, जिससे यह आरोप लग रहा है कि सरकार आरक्षण को कमज़ोर करने का प्रयास कर रही है।
- योग्यता पर सवाल: UPSC के माध्यम से चयनित होने वाले अधिकारियों को कड़ी परीक्षा और ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है, जबकि लेटरल एंट्री में चयन की प्रक्रिया उतनी कठोर नहीं होती। इससे उनकी योग्यता पर सवाल उठते हैं।
- प्रोमोशन में बाधा: लेटरल एंट्री के माध्यम से आने वाले अधिकारी पहले से उच्च पदों पर नियुक्त हो जाते हैं, जिससे UPSC के माध्यम से चयनित अधिकारियों के प्रमोशन के अवसर सीमित हो जाते हैं। इससे अंदरूनी असंतोष और तनाव बढ़ सकता है।
लेटरल एंट्री पर सरकार और विपक्ष के तर्क
- सरकार का तर्क:
- विशेषज्ञता का लाभ: सरकार का कहना है कि लेटरल एंट्री के माध्यम से विशेष क्षेत्रों के विशेषज्ञों को नीति निर्माण में शामिल किया जा रहा है। इस तरह के विशेषज्ञ, जैसे बायो-इंजीनियर या जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप्स के विशेषज्ञ, अपनी विशेषज्ञता के माध्यम से नीति निर्माण को बेहतर बना सकते हैं। यह दृष्टिकोण 2005 की सेकंड एआरसी (Administrative Reforms Commission) की सिफारिशों पर आधारित है, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में लेटरल एंट्री होनी चाहिए।
- अस्थायी नियुक्ति: लेटरल एंट्री के तहत नियुक्त व्यक्तियों की नियुक्ति सीमित अवधि के लिए होती है (3 से 5 साल तक), और इन्हें नियुक्ति के समय में निर्धारित विभाग में ही रहना होता है। यह अस्थायी नियुक्ति व्यवस्था इसलिए अपनाई गई है ताकि केवल आवश्यक विशेषज्ञता का लाभ उठाया जा सके।
- आरक्षण की दलील: सरकार का तर्क है कि जब किसी विभाग में आईएएस अधिकारियों को पोस्ट किया जाता है, तो उस विभाग के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं होती। इसलिए, लेटरल एंट्री के तहत भी आरक्षण का मुद्दा नहीं उठना चाहिए क्योंकि पदों की संख्या और विभाग विशेष के अनुसार विशेषज्ञता की आवश्यकता को प्राथमिकता दी जाती है।
- विपक्ष का तर्क:
- आरक्षण का मुद्दा: विपक्ष का कहना है कि लेटरल एंट्री के माध्यम से आरक्षण का प्रावधान समाप्त हो सकता है। यदि पद ओपन कैटेगरी के लिए होते हैं, तो आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते। विपक्ष का आरोप है कि यह आरक्षण को खत्म करने की दिशा में एक कदम हो सकता है।
- पूर्व में समर्थन: राहुल गांधी ने 2019 में लेटरल एंट्री के समर्थन में ट्वीट किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि पूर्व सैनिकों को सिविल सर्विसेस में लेटरल एंट्री मिलनी चाहिए। वर्तमान में विरोध करने पर विपक्ष का कहना है कि यह विरोध राजनीतिक हितों के कारण है और वास्तविकता से दूर है।
- प्रस्तावित उपाय:
- विशेषज्ञता और मेरिट: सरकार ने लेटरल एंट्री के तहत पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति के लिए विशेषज्ञता और मेरिट को प्राथमिकता देने की बात कही है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य मंत्रालय में विशेषज्ञता रखने वाले व्यक्ति को ही स्वास्थ्य से संबंधित पदों के लिए रखा जाएगा।
- प्रस्ताव वापस लेने का सुझाव: हाल ही में, यूपीएससी के चेयरमैन से लेटरल एंट्री प्रस्ताव को वापस लेने की भी मांग की गई है, जो कि विवाद को लेकर उठी चिंताओं को दर्शाता है।
इस प्रकार, लेटरल एंट्री के मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के बीच तर्क-वितर्क चल रहा है, जिसमें दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें और चिंताएं हैं।
निष्कर्ष:
लेटरल एंट्री का मुद्दा प्रशासनिक सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन इसे निष्पक्ष और समावेशी बनाने के लिए आरक्षण और पारदर्शिता जैसे मुद्दों का ध्यान रखना आवश्यक है। विपक्ष की चिंताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और इस प्रक्रिया को सही और न्यायपूर्ण ढंग से लागू करने की आवश्यकता है।