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भारत का जीसैट N2 सैटेलाइट: इसरो ने स्पेसएक्स की सहायता क्यों ली?

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भारत का जीसैट N2 सैटेलाइट: इसरो ने स्पेसएक्स की सहायता क्यों ली?

भारत ने अपने स्पेस रिसर्च प्रोग्राम के तहत एक सेटेलाइट, जीसैट N2, अमेरिका की प्राइवेट कंपनी स्पेसएक्स के जरिए लॉन्च करवाया है। यह खबर सुनते ही पहला सवाल जो दिमाग में आता है, वह यह कि इसरो ने खुद यह सैटेलाइट क्यों नहीं लॉन्च किया?

अब यह सवाल उठता है कि क्या ऐसा करना इतना जरूरी था? और इसके पीछे की तकनीकी और व्यावहारिक वजह क्या हो सकती हैं। चलिए, सबसे पहले यह जान लेते हैं कि यह सैटेलाइट, जीसैट N2, क्या है और यह किस काम आएगा। यह सैटेलाइट अमेरिका से भेजा गया है, और इसे स्पेसएक्स द्वारा लॉन्च किया गया है। यह कम्युनिकेशन सैटेलाइट है, जो 4700 किलोग्राम का है और अगले 14 सालों तक काम करेगा। इसे जिओ-स्टेशनरी ट्रांसफर ऑर्बिट में रखा जाएगा।

फाल्कन 9 रॉकेट का उपयोग करके इस सैटेलाइट को लॉन्च किया गया है। यह रॉकेट स्पेसएक्स की तकनीकी उपलब्धियों का एक हिस्सा है। इसके जरिए सैटेलाइट को जिओ-स्टेशनरी ट्रांसफर ऑर्बिट में भेजा जाएगा, जहां से इसे 35786 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंचाया जाएगा। यह सैटेलाइट देश के दूर-दराज इलाकों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी पहुंचाने के काम आएगा।

अब सवाल आता है कि इसरो ने खुद यह सैटेलाइट क्यों नहीं लॉन्च किया। इसके पीछे की मुख्य वजह यह है कि इसरो के पास फिलहाल 4000 किलोग्राम से ज्यादा वजन उठाने वाली रॉकेट की क्षमता नहीं है। जीसैट N2 का वजन 4700 किलोग्राम है, जिसे इसरो के रॉकेट नहीं ले जा सकते थे। इसलिए स्पेसएक्स के फाल्कन 9 का इस्तेमाल किया गया।

स्पेसएक्स की तकनीकी क्षमताओं की बात करें तो, फाल्कन 9 एक रीयूजेबल रॉकेट है जो अपने पेलोड को छोड़ने के बाद वापस आ सकता है। यह तकनीक इसरो के पास नहीं है, जिससे स्पेस में कचरा कम होता है। इसके अलावा, स्पेसएक्स के फाल्कन 9 की क्षमता 54000 किलोग्राम है, जो 4700 किलोग्राम के पेलोड को आसानी से ले जा सकता है।

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इसरो ने स्पेसएक्स के साथ जनवरी 2024 में ही टाई अप कर लिया था, और यह लॉंच उसी टाई अप का हिस्सा है। इससे पहले, इसरो अपने हैवीवेट सैटेलाइट्स को फ्रांस के एरियन 5 रॉकेट से लॉन्च करता था। लेकिन एरियन 5 की जगह नए एरियन 6 को लाया जा रहा है, जो अभी तैयार नहीं है। इसलिए इस बार स्पेसएक्स का उपयोग किया गया।

जीटीओ यानी जिओ-स्टेशनरी ट्रांसफर ऑर्बिट का मतलब यह होता है कि सैटेलाइट को धरती की कक्षा में एक एलिप्टिकल पाथ में भेजा जाता है, जहां से यह अपने आप जिओ-स्टेशनरी ऑर्बिट में चला जाता है। इस तकनीक के जरिए सैटेलाइट को धरती के नजदीक और दूर की कक्षा में चक्कर लगाने के लिए भेजा जाता है।

इसरो के रॉकेट फिलहाल 4000 किलोग्राम से अधिक वजन नहीं ले जा सकते, इसलिए स्पेसएक्स का उपयोग करना पड़ा। इसके अलावा, स्पेसएक्स के फाल्कन 9 रॉकेट की क्षमताएं और इसकी रीयूजेबल टेक्नोलॉजी इसरो के रॉकेट्स से बेहतर हैं।

जीटीओ का मतलब यह है कि सैटेलाइट को धरती की कक्षा में एक एलिप्टिकल पाथ में भेजा जाता है, जहां से यह अपने आप जिओ-स्टेशनरी ऑर्बिट में चला जाता है। इससे सैटेलाइट धरती के सामने स्थिर रहता है और धरती के घूर्णन के साथ-साथ चक्कर लगाता है। इस पूरी प्रक्रिया में तकनीकी और आर्थिक दोनों कारण शामिल हैं, जिसके चलते इसरो ने स्पेसएक्स की मदद ली। इसरो की अपनी तकनीकी क्षमताओं में सुधार करते हुए भविष्य में खुद से ही भारी वजन के सैटेलाइट्स लॉन्च करने की दिशा में काम चल रहा है।

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