छत्रपति संभाजी महाराज एक अमर बलिदानी योद्धा
मुगल बादशाह औरंगजेब के चौथे बेटे अकबर ने जब अपने पिता के खिलाफ बगावत की, तो उन्होंने मराठाओं से मदद मांगी। छत्रपति संभाजी महाराज ने अकबर को न केवल आश्रय दिया, बल्कि उनकी बहन को एक पत्र लिखा, जो औरंगजेब के हाथ लग गया। इसमें संभाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि यदि बादशाह जिद पर अड़े रहे, तो वे दक्कन में ही अपनी कब्र के लिए जगह ढूंढ लें। यह भविष्यवाणी सत्य साबित हुई—औरंगजेब दिल्ली नहीं लौट पाया और उसकी मृत्यु दक्कन में हुई।
संभाजी महाराज का प्रारंभिक जीवन
संभाजी राजे, मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले में हुआ था। उनकी माता सईबाई का देहांत उनके बचपन में ही हो गया, जिसके बाद उनकी परवरिश उनकी दादी जीजाबाई ने की। नौ वर्ष की आयु में उन्हें राजपूत राजा जयसिंह के यहाँ संधि के तहत बंदी के रूप में रखा गया था। बाद में, जब शिवाजी महाराज आगरा से निकलने में सफल हुए, तो उन्होंने संभाजी को सुरक्षा कारणों से मथुरा में अपने रिश्तेदार के यहाँ छोड़ दिया और उनकी मृत्यु की झूठी खबर फैलाई।
संभाजी बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। 1678 में, शिवाजी महाराज ने उन्हें पन्हाला किले में नज़रबंद कर दिया, लेकिन वे वहां से अपनी पत्नी के साथ भाग निकले और लगभग एक वर्ष तक मुगलों के साथ रहे। जब उन्हें पता चला कि मुगल सरदार दिलेर खान उन्हें दिल्ली भेजने की योजना बना रहा है, तो वे मुगलों का साथ छोड़कर महाराष्ट्र लौट आए।
संभाजी का राज्यारोहण और संघर्ष
अप्रैल 1680 में शिवाजी महाराज की मृत्यु के समय संभाजी पन्हाला में नज़रबंद थे। शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम को राजा घोषित कर दिया गया, लेकिन संभाजी ने जल्द ही पन्हाला और रायगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। 20 जुलाई 1680 को वे मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति बने।
संभाजी महाराज ने अपने पिता की नीति को आगे बढ़ाते हुए मुगलों पर कहर बरपाना शुरू किया। उन्होंने बुरहानपुर पर हमला कर उसे तहस-नहस कर दिया और मुगल सेना को भारी नुकसान पहुँचाया। उनके शासनकाल में मुगलों और मराठों के बीच लगातार संघर्ष चलता रहा।
विशेषज्ञों की राय
मराठा इतिहासकारों के अनुसार, जब संभाजी गद्दी पर बैठे, तब उनकी आयु मात्र 22 वर्ष थी। लेकिन इतनी कम उम्र में भी उन्होंने एक अजेय योद्धा के रूप में मराठा साम्राज्य की रक्षा की। औरंगजेब ने दक्कन पर आक्रमण के लिए लाखों सैनिक और विशाल संसाधन झोंक दिए, लेकिन संभाजी ने उन्हें कड़ी चुनौती दी। उनके नेतृत्व में मराठों ने मुगलों का डटकर सामना किया और अपने क्षेत्र की रक्षा की।

संभाजी महाराज की शहादत
फरवरी 1689 में, जब संभाजी महाराज संगमेश्वर में एक बैठक के लिए गए हुए थे, तब उन पर मुगल सरदार मुकर्रम खान के नेतृत्व में घात लगाकर हमला किया गया। उनके प्रमुख सरदारों की हत्या कर दी गई और उन्हें उनके सलाहकार कवि कलश के साथ बंदी बना लिया गया।
औरंगजेब ने उन्हें प्रस्ताव दिया कि यदि वे इस्लाम कबूल कर लें और अपने किले मुगलों को सौंप दें, तो उनकी जान बख्श दी जाएगी। लेकिन संभाजी महाराज ने इसे दृढ़ता से ठुकरा दिया। इसके बाद उन पर अमानवीय यातनाएँ शुरू की गईं—उन्हें जोकर की पोशाक पहनाकर पूरे शहर में घुमाया गया, पत्थर मारे गए, भाले चुभाए गए, उनकी आँखें निकाली गईं और अंततः उनकी जुबान भी काट दी गई।
इतिहासकार डेनिस किनकर के अनुसार, जब उनसे अंतिम बार पूछा गया, तो उन्होंने लिखकर उत्तर दिया—
“अगर बादशाह अपनी बेटी भी दे तब भी इस्लाम कबूल नहीं करूंगा।“
11 मार्च 1689 को उन्हें अत्यंत क्रूरता से मार दिया गया। कहा जाता है कि उनकी शहादत के बाद औरंगजेब ने अफसोस भरे स्वर में कहा था—
“अगर मेरे चार बेटों में से एक भी संभाजी जैसा होता, तो पूरा हिंदुस्तान कबका मुगल सल्तनत में समा चुका होता।“
संभाजी की शहादत के बाद की स्थिति
संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य बिखरने के बजाय और अधिक संगठित हो गया। जो मराठा सरदार पहले अलग-अलग थे, वे अब एकजुट होकर मुगलों के खिलाफ लड़े। औरंगजेब का दक्कन पर कब्जा करने का सपना अधूरा ही रह गया। संभाजी महाराज की भविष्यवाणी सच साबित हुई—औरंगजेब को अपनी अंतिम साँस भी दक्कन में ही लेनी पड़ी।
संभाजी महाराज की विरासत
संभाजी महाराज मराठा इतिहास में एक अमर नायक हैं। मराठी साहित्य में उनके जीवन पर कई ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें शिवाजी सावंत का उपन्यास ‘छावा’ विशेष रूप से प्रसिद्ध है। ‘छावा’ अर्थात् शेर का शावक—यह नाम आज भी महाराष्ट्र में संभाजी राजे की पहचान बना हुआ है।